प्रत्येक व्यक्ति चाहता है, लोक व्यवहार में...समाज में मेरी प्रतिष्ठा बढे...मेरे यश में वृद्धि हो...मेरी स्वीकार्यता...लोकप्रियता बढे...!यह मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है...आखिर ऐसा कौन नहीं चाहेगा...?
इसके लिए वह भांति-भांति के उपक्रम करता है...किन्तु क्षमा करे...सामान्य रूप से अच्छा बनने के स्थान पर अच्छा दीखाने की कोशिश की जाती है...!स्वयं को अच्छा दीखाने की इस कोशिश में एक व्यक्ति न जाने कितने-कितने मुखौटे लगाता रहता है ! आंशिक मात्र में ही सही, किन्तु यह क्रम बचपन से ही आरम्भ हो जाता है...जाने अनजाने इस ओर प्रवृत करने का काम करते है बच्चे के माता-पिता और उसके परिवार के अन्य वरिष्ठ सदस्य...!क्योकि शिशु जब जन्म लेता है तो उसके साथ होती है उसकी सहज प्रवृति,उसकी मासूमियत...! हम अपनी अतृप्त महत्वाकांक्षाओ को पूरा करने के लिए अनजाने ही अपने विचार अपनी सोच अपने तर्कों के साथ उस पर थोपते जाते है...बालक शनै-शनै यह सब स्वीकारता जाता है ...उसका स्व उसकी सहज प्रवृतिया...उसकी मासूमियत उससे छूटती जाती है,जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है...विजातीय सोच-विचार जो उसके अपने नहीं है,के कारण उसकी मुस्कान में,आँखों में चहरे की भाव-भंगिमा में परिवर्तन आने लगता है
उसके अपने स्व की मूल प्रवृतियों का विलोपन होते-होते उसके व्यवहार में...व्यक्तित्व में सहजता के स्थान पर कृत्रिमता का प्रवेश होता जाता है !
यदि हम बालक को उसकी सहजता और मासूमियत के साथ बड़ा होने दे जो उसमे जन्मतः विद्यमान है तो बदले में हमें प्राप्त होगा...एक सुन्दर और समस्याओं से रहित भारत....!!!!
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