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रविवार, 21 फ़रवरी 2010

नेह...

प्रेम न बाड़ी उपजे,प्रेम न हाट बिकाय...!



राजा प्रजा जोहि रुचे.शीश देई ले जाय...!!
           संत कबीर ने प्रेम को अत्यंत सरल- सहज शब्दों में व्याख्यायित किया है...!

कवि 'घनानंद' ने भी सच्चे प्रेम को बहुत ही सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त किया है...
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।



तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥ 
 
क्या प्रेम की इतनी उदात्त उच्चतम अभिव्यक्ति दुनिया के किसी अन्य साहित्य में देखी जा सकती है ...निसंदेह रूप से नहीं, यह केवल और केवल इस भारत-भूमि में ही संभव है...अब हमें पश्चिम अपने velentine-डे के माध्यम से प्रेम का पाठ पढ़ा रहा है हमारे युवा इस क्षुद्र बाजारवाद से प्रेरित वासनात्मक आकर्षण की चकाचौंध के पीछे बस भागे जा रहे है.... वे यह भूल चुके है कि राधा और कृष्ण प्रकृति और पुरुष के दो रूप उन्ही की सरस भूमि है यह... यमुना कालिंदी के कूल आज भी साक्षी है गोपाल की मधु- वेणु की सुमधुर तानो के जिसे सुनकर गोपिकाए सुध-बुध खो देती थी....पखेरू चहकना भूल जाते थे....!कश्मीर में जाइये आप को सुनने मिलेगी...लोलरे और बम्बुर की पवित्र प्रणय-गाथा...प्रणय की पवित्र-वेदि पर उनका त्याग आज भी आँखों को गीला कर देता है....!पंजाब में जाईये सोहना-जेनी, हीर-राँझा की कथाये गूंजती सुनाई देगी...!धोरो की धरती पर मूमल-महेंद्र के प्रेम-गीत सुनाई देंगे....प्रेम ऐसा की प्रणय-वेदि पर अपने प्राणों का उत्सर्ग...कर देता है .. पश्चिम जंहा प्रेम केवल  शारीरिक आकर्षण से आरम्भ होता है ...वही समाप्त हो जाता है....  क्या हमारा आदर्श हो सकता है...???   एक छोटी लघु-कथा से अपनी बात पूरी करता हू....
                        राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में दो सखिया ईधन के जुगाड़ में निकली थी...चलते-चलते मार्ग में एक सखी की नजर एक      पानी के गड्ढे के पास मृत पड़े मृग-जोड़े पर पड़ी...उसने दूसरी सखी से कुछ ऐसे पूछा ....



                                                                    
              "खैय्यो न दीखे पारधि लग्यो न दीखे बाण,



             हे सखी में थाने पूछू,किस विध तज्या प्राण...??
दूसरी सखी ने ऐसे उत्तर दिया...
               "जल थोड़ो नेहो घणो,लग्या प्रीत का बाण...!



               तू पी,तू पी करता ही,दोन्यो तज्या  पिराण...!!"

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