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शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

अच्छा दीखने का नहीं...अच्छा बनने का प्रयत्न कीजिये....!!!

प्रत्येक व्यक्ति चाहता है, लोक व्यवहार में...समाज में मेरी प्रतिष्ठा बढे...मेरे यश में वृद्धि हो...मेरी स्वीकार्यता...लोकप्रियता बढे...!यह मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है...आखिर ऐसा कौन नहीं चाहेगा...?



इसके लिए  वह   भांति-भांति के उपक्रम करता है...किन्तु क्षमा करे...सामान्य रूप से अच्छा बनने के स्थान पर अच्छा    दीखाने    की कोशिश की जाती है...!स्वयं को अच्छा दीखाने की इस कोशिश में एक व्यक्ति न जाने कितने-कितने मुखौटे लगाता रहता है ! आंशिक मात्र में ही सही, किन्तु यह क्रम बचपन से ही आरम्भ हो जाता है...जाने अनजाने इस ओर प्रवृत करने का काम करते है बच्चे के माता-पिता  और   उसके परिवार के अन्य वरिष्ठ सदस्य...!क्योकि शिशु जब जन्म लेता है तो उसके साथ होती है उसकी सहज प्रवृति,उसकी मासूमियत...! हम अपनी अतृप्त महत्वाकांक्षाओ को पूरा करने के लिए अनजाने ही अपने विचार अपनी सोच अपने तर्कों के साथ उस पर थोपते जाते है...बालक शनै-शनै यह सब स्वीकारता जाता है ...उसका स्व उसकी सहज प्रवृतिया...उसकी मासूमियत उससे छूटती जाती है,जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है...विजातीय सोच-विचार जो उसके अपने नहीं है,के कारण उसकी मुस्कान में,आँखों में चहरे की भाव-भंगिमा में परिवर्तन आने लगता है

उसके अपने स्व की मूल प्रवृतियों का विलोपन होते-होते उसके व्यवहार में...व्यक्तित्व में सहजता के स्थान पर कृत्रिमता का प्रवेश होता जाता है !
यदि हम बालक को उसकी सहजता और मासूमियत के साथ बड़ा होने दे जो उसमे जन्मतः विद्यमान है तो बदले में हमें प्राप्त होगा...एक सुन्दर और समस्याओं से रहित भारत....!!!!

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

नेह...

प्रेम न बाड़ी उपजे,प्रेम न हाट बिकाय...!



राजा प्रजा जोहि रुचे.शीश देई ले जाय...!!
           संत कबीर ने प्रेम को अत्यंत सरल- सहज शब्दों में व्याख्यायित किया है...!

कवि 'घनानंद' ने भी सच्चे प्रेम को बहुत ही सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त किया है...
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।



तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥ 
 
क्या प्रेम की इतनी उदात्त उच्चतम अभिव्यक्ति दुनिया के किसी अन्य साहित्य में देखी जा सकती है ...निसंदेह रूप से नहीं, यह केवल और केवल इस भारत-भूमि में ही संभव है...अब हमें पश्चिम अपने velentine-डे के माध्यम से प्रेम का पाठ पढ़ा रहा है हमारे युवा इस क्षुद्र बाजारवाद से प्रेरित वासनात्मक आकर्षण की चकाचौंध के पीछे बस भागे जा रहे है.... वे यह भूल चुके है कि राधा और कृष्ण प्रकृति और पुरुष के दो रूप उन्ही की सरस भूमि है यह... यमुना कालिंदी के कूल आज भी साक्षी है गोपाल की मधु- वेणु की सुमधुर तानो के जिसे सुनकर गोपिकाए सुध-बुध खो देती थी....पखेरू चहकना भूल जाते थे....!कश्मीर में जाइये आप को सुनने मिलेगी...लोलरे और बम्बुर की पवित्र प्रणय-गाथा...प्रणय की पवित्र-वेदि पर उनका त्याग आज भी आँखों को गीला कर देता है....!पंजाब में जाईये सोहना-जेनी, हीर-राँझा की कथाये गूंजती सुनाई देगी...!धोरो की धरती पर मूमल-महेंद्र के प्रेम-गीत सुनाई देंगे....प्रेम ऐसा की प्रणय-वेदि पर अपने प्राणों का उत्सर्ग...कर देता है .. पश्चिम जंहा प्रेम केवल  शारीरिक आकर्षण से आरम्भ होता है ...वही समाप्त हो जाता है....  क्या हमारा आदर्श हो सकता है...???   एक छोटी लघु-कथा से अपनी बात पूरी करता हू....
                        राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में दो सखिया ईधन के जुगाड़ में निकली थी...चलते-चलते मार्ग में एक सखी की नजर एक      पानी के गड्ढे के पास मृत पड़े मृग-जोड़े पर पड़ी...उसने दूसरी सखी से कुछ ऐसे पूछा ....



                                                                    
              "खैय्यो न दीखे पारधि लग्यो न दीखे बाण,



             हे सखी में थाने पूछू,किस विध तज्या प्राण...??
दूसरी सखी ने ऐसे उत्तर दिया...
               "जल थोड़ो नेहो घणो,लग्या प्रीत का बाण...!



               तू पी,तू पी करता ही,दोन्यो तज्या  पिराण...!!"

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

सदगुण-विकृति..

बी. बी. सी. हिंदी पर १८ फरवरी २०१० को एक समाचार प्रकाशित हुआ है...'आस्ट्रेलियाई युवक को महामंडलेश्वर की पदवी...' कुम्भ के अवसर पर हिन्दू समाज के तेरह प्रमुख अखाड़ो में से एक महानिर्वाणी अखाड़े द्वारा पहली बार आस्ट्रेलियाई मूल के सिडनी निवासी 'जेसन' नामक युवक को महामंडलेश्वर के जैसे महत्वपूर्ण पद पर अभिषिक्त किया गया है.... स्मरण रहे ....सन्यासी परम्परानुसार महामंडलेश्वर का पद सन्यासियों के सर्वोच्च पद शंकराचार्य से दो पद नीचे होता है...
    जेसन अब महामंडलेश्वर जसराज गिरी के नाम से जाने जायेंगे .....एक ओर आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर लगातार होते नस्लीय हमले...दूसरी ओर एक आस्ट्रेलियाई युवक को हिन्दू सन्यास परंपरा के महत्वपूर्ण पद पर अभिषिक्त किया जाना...क्या आप को आश्चर्य नहीं होता ...?कुछ इस मामले में कहते है कि हम आस्ट्रेलिया को विश्व-बंधुत्व का सन्देश देना चाहते है....कुछ कहेंगे -यही तो है हिन्दू समाज की उदारता ....किन्तु मै इसे सावरकर के दृष्टिकोण से कहूँगा ...यह हिन्दुओ की सदगुण-विकृति है....क्या करे हम अपनी आदत से मजबूर जो है....हमें विश्व-मंच पर अपनी पीठ थप- थपवाने का पुराना शौक है....आप क्या कहेंगे....???

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

दृष्टिकोण




नीचे की ओर जाना श्रेष्ठता का परम लक्षण है , क्योंकि नीचे जाने को वही राजी हो सकता है जिसकी श्रेष्ठता इतनी सुनिश्चित है कि नीचे जाने पर नष्ट नही होती है ऊपर वही जाने को उत्सुक होता है जिसे पता है कि अगर वह नीचे रहा तो निकृष्ट समझा जाएगा ऊपर की ओर जाने के लिए होड़ लगी है इसके विपरीत नीचे जाने में कोई होड़ नही , कोई संघर्ष नही है , पर वहा जाने को कोई राजी नही है। नीचे की ओर जाना आन्तरिक श्रेष्ठता है।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

माँ

'माँ'- शब्द जिसकी ध्वनि कर्ण-कुहर में प्रवेश करते ही ऐसी अनुभूति होती है जैसे कानो में मधु की मधुरता घुल गई हो,इस शब्द का उच्चारण करने में भी जैसे ध्वनि- सम्प्रेषण के सभी अवयवो का 
एक साथ प्रयोग हो रहा हो..!
नारी चाहे संसार की सकल सिद्धिया प्राप्त करले या समस्त विभूतियों की स्वामिनी बन जाये किन्तु यदि कोई अपनी तुतलाती बोली से उसे माँ कहने वाला नहीं हो तो उसके लिए सब व्यर्थ है, नीरस है...!
 इसी लिए तो किसी शायर ने कहा है-
घास पर खेलता एक बच्चा,पास बैठी i माँ मुस्कराती है ...हैरत है मुझे ये देखकर,क्यों दुनिया काबा ओ सोमनाथ जाती है...
कहते है की भगवान स्वयं धरती पर उपस्थित नहीं हो सकते थे इसलिए अपने प्रतिनिधि के रूप में माँ को भेज दिया ...! अपनी संतान की प्रसन्नता के लिए माँ अपने सभी सुखो को त्याग देती है ,और यह सब करते हुए उसे परम आनंदानुभूति होती है ....एक शायर ने इसे यूं कहा है... .......याद आ गयी माँ,
जब देखा मोमबत्ती को पिघलकर रौशनी देते हुए..!! .......
मैंने बहुत पहले एक कव्वाली सुनी थी जिसका सार-संक्षेप कुछ इस तरह से है-
एक युवक, एक युवती के रूप-जाल के आकर्षण में  बन्ध  कर प्रेम-निवेदन करता है...युवती इसके लिए शर्त रखती है कि यदि वह अपनी माँ का दिल ला कर दे तो अपनी स्वीकृति दे सकती है ...युवक तो जैसे भी संभव हो उसकी स्वीकृति चाहता था....एक पल भी गवाए बिना घर पंहुचा....माँ तो ना जाने कब से उसकी प्रतीक्षा कर रही थी...कहने लगी बेटा बहुत देर हो गयी तुम्हे भूख लगी होगी आओ जल्दी से खाना खा लो ...किन्तु बेटे पर तो जैसे नशा सवार था ...अन्दर से खंजर लाया और भोक दिया माँ की छाती में...और माँ का दिल निकालकर चल पड़ा अपने सपने को पूरा करने ...पेरो में तो जैसे उसके पंख लग गए थे...अचानक ठोकर लगी ...माँ का दिल हाथ से नीचे गिरा और एक आवाज आई ...मेरे बेटे देखू तो तुम्हे कही चोट तो नहीं लगी...पर उसको यह नहीं सुनाई दिया...संभल कर उठा और चल दिया...अपनी महबूबा को अपनी भेट प्रस्तुत कर दी....महबूबा ने उसे कहा-तुम अपनी माँ के नहीं हुए तो मेरे कैसे हो सकते हो....


अंत में.......
* " माँ का प्यार वह उर्जा है जो असंभव को भी संभव बना सकता है!"
*"माँ दुनिया में सबसे अधिक वेतन पाने वाली व्यक्ति है,क्योकि उसे वेतन प्यार के रूप में मिलता है!"
"माँ को ठण्ड लगती है तो वह बच्चो को स्वेटर पहना देती है!"
*"माँ वह बैंक है जहा हम अपने दुःख और तकलीफे जमा कर भूल जाते है और बदले में हमें ब्याज सहित खुशिया मिलती है !"
*"पहली नजर का पहला प्यार होता है...तभी तो हम माँ को पहली बार देखते है और पहला प्यार हो जाता है!"











































                    






                 .

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

"यद् भावं तद भवति"


"यद् भावं तद भवति...!" - सूत्र के अनुसार आप जैसा मन में संकल्प करेंगे वैसा ही परिणाम प्राप्त किया जा सकता है ! बस आवश्यकता है तो आपकी जिद की...आपकी प्रतिबद्धता की ...आपके आत्मविश्वास की ...अपनी सम्पूर्ण उर्जा को केंद्रीभूत कर प्रयत्न करने की...प्रयत्न ऐसा कि काम करने में आनंदानुभूति होने लगे... कभी परिस्थितिवश प्रयत्न में लंघन हो जाये तो बार-बार मन में कष्ट का अनुभव   हो...!     
                      यदि ऐसा करने की सिद्धता आप की है तो निश्चित मानिये आप जैसा चाहेंगे वैसा ही होने लगेगा...हां यदि कोई आपका आत्मीय आप को इसमें प्रोत्साहित करे तो और भी अच्छा है ... सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए ...अपने इष्ट में विश्वास रखकर आगे बढे ....आपके जीवन में चमत्कार घटित होगा...!!! इष्ट में विश्वास यह इसलिए जरुरी है कि भगवान अपने भक्त के संकल्प की पूर्ति के लिए जरुरत होने पर अपना संकल्प तोड़ना पड़े तो तोड़ कर भक्त का संकल्प पूर्ण करने में सहयोग प्रदान करते है...!!!!

अपना...!!!

"जिसके लिए...जिसके साथ ...आप हँसे है...उसे भुलाना आसान है ...किन्तु...जिसके लिए ...जिसके साथ ...आप रोए है...उसे भूला पाना कठिन ही नहीं, असंभव है....!!!

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

अस्तित्व

शीश झुकने के लिए नहीं, सहर्ष काटने और कटने के लिए है ..
अस्तित्व खरीदने बिकने के लिए नहीं अपने होने को सिद्ध करने के लिए है


हम जिए या मरे यह प्रश्न है व्यर्थ का , हम हारे या जीते यह प्रश्न है समर्थ का
लेकिन इन सबसे बड़ा एक प्रश्न है .. सिंह होकर गीदड़ो का संस्कार क्योँ ?
जीए तो कुछ इस तरह साक्षी रहे ये जमी ...!!!!

दोस्त

"जिसके साथ रहकर हम अपने को सर्वाधिक जान सके.......जो हमारे नैराश्य के तिमिर में आशा की दीपशिखा जला दे........जिसकी प्रफुल्लता हमारी सृजनात्मकता के लिए प्रेरणा बने.........जो हमारे विपत्ति के क्षणों में सहारा बने........कमजोर क्षणों में उत्साह का संचार करे..........जो विश्वास शब्द की गरिमा को कायम रखने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे......
जीवन के उतार चढाव सुख दुःख में एक ऐसा दोस्त मिल जाये तो ज़िन्दगी ख़ुशी का दरिया लगती है ...
उसमे डूब जाने को जी चाहता है .....!